संदेश

1.ध्रुव वन गमन

*श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—शत्रुसूदन विदुरजी! सनकादि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि और यति—ब्रह्माजीके इन नैष्ठिक ब्रह्मचारी पुत्रोंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश नहीं किया (अतः उनके कोई सन्तान नहीं हुई)⁠। अधर्म भी ब्रह्माजीका ही पुत्र था, उसकी पत्नीका नाम था मृषा⁠। उसके दम्भ नामक पुत्र और माया नामकी कन्या हुई⁠। उन दोनोंको निर्ऋति ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी ⁠।⁠।⁠१-२⁠।⁠। दम्भ और मायासे लोभ और निकृति (शठता)-का जन्म हुआ, उनसे क्रोध और हिंसा तथा उनसे कलि (कलह) और उसकी बहिन दुरुक्ति (गाली) उत्पन्न हुए ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। साधुशिरोमणे! फिर दुरुक्तिसे कलिने भय और मृत्युको उत्पन्न किया तथा उन दोनोंके संयोगसे यातना और निरय (नरक)-का जोड़ा उत्पन्न हुआ ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। निष्पाप विदुरजी! इस प्रकार मैंने संक्षेपसे तुम्हें प्रलयका कारणरूप यह अधर्मका वंश सुनाया⁠। यह अधर्मका त्याग कराकर पुण्य-सम्पादनमें हेतु बनता है; अतएव इसका वर्णन तीन बार सुनकर मनुष्य अपने मनकी मलिनता दूर कर देता है ⁠।⁠।⁠५⁠।⁠।*   करुनन्दन! अब मैं श्रीहरिके अंश (ब्रह्माजी)-के अंशसे उत्पन्न हुएपवित्रकीर्ति महाराज स्वायम्भुव मनुके पुत्रोंके वंशका वर्णन करता...

4.युद्ध बंदी

  श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! ऋषियोंका ऐसा कथन सुनकर महाराज ध्रुवने आचमन कर श्रीनारायणके बनाये हुए नारायणास्त्रको अपने धनुषपर चढ़ाया ⁠।⁠।⁠१⁠।⁠। उस बाणके चढ़ाते ही यक्षोंद्वारा रची हुई नाना प्रकारकी माया उसी क्षण नष्ट हो गयी, जिस प्रकार ज्ञानका उदय होनेपर अविद्यादि क्लेश नष्ट हो जाते हैं ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠।ऋषिवर नारायणके द्वारा आविष्कृत उस अस्त्रको धनुषपर चढ़ाते ही उससे राजहंसके-से पक्ष और सोनेकेफलवाले बड़े तीखे बाण निकले और जिस प्रकार मयूर केकारव करते वनमें घुस जाते हैं, उसी प्रकार भयानक साँय-साँय शब्द करते हुए वे शत्रुकी सेनामें घुस गये ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। उन तीखी धारवाले बाणोंने शत्रुओंको बेचैन कर दिया⁠। तब उस रणांगणमें अनेकों यक्षोंने अत्यन्त कुपित होकर अपने अस्त्र-शस्त्र सँभाले और जिस प्रकार गरुड़के छेड़नेसे बड़े-बड़े सर्प फन उठाकर उनकी ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार वे इधर-उधरसे ध्रुवजीपर टूट पड़े ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। उन्हें सामने आते देख ध्रुवजीने अपने बाणोंद्वारा उनकी भुजाएँ, जाँघें, कंधे और उदर आदि अंग-प्रत्यंगोंको छिन्न-भिन्न कर उन्हें उस सर्वश्रेष्ठ लोक (सत्यलोक)-में भेज दिया, जिसमें ऊर्ध्वरेता मुनिगण सूर...

Index

४-सतीका अग्निप्रवेश  ५-वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध  ६-ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना  ७-दक्षयज्ञकी पूर्ति  ८-ध्रुवका वन-गमन  ९-ध्रुवका वर पाकर घर लौटना  १०-उत्तमका मारा जाना, ध्रुवका यक्षोंके साथ युद्ध  ११-स्वायम्भुव-मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करनेके लिये समझाना  १२-ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति  १३-ध्रुववंशका वर्णन, राजा अंगका चरित्र  १४-राजा वेनकी कथा  १५-महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक  १६-वंदीजनद्वारा महाराज पृथुकी स्तुति १७-महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना और पृथ्वीके द्वारा उनकी स्तुति करना  १८-पृथ्वी-दोहन

Punarvasun7

 पुनर्वसु  4/4से4/18 "सती अव्यक्त शरीर" से "प्रथ्वी दोहन"तक (15) अध्याय वेद स्तुति प्रभु! जीव जिन-शरीरोंमें रहता है, वे शरीर उसके कर्मके द्वारा निर्मित होते हैं और   वहजीव वास्तवमें उन शरीरोके कार्य-कारणरूप आवरण से रहित हैं ,क्योंकि वस्तुतः उन आवरणोंकी सत्ता ही नहीं है। तत्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते हैं कि समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले आपका ही वह (जीव) स्वरूप है।  स्वरूप होनेके कारण "अंश नहींहोने परभी उसे अंश कहते हैं" और "निर्मित नहीं होने परभी निर्मित कहते हैं।" इसी से बुद्धिमान पुरुष,जीवके वास्तविक स्वरूपपर विचार करके, परमविश्वासकेसाथ आपके चरणकमलोंकी उपासना करते हैं। क्योंकि आपकेचरण ही समस्त वैदिक कर्मोंके समर्पणस्थान और मोक्षस्वरूप है।।#वेदस्तुति