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देवताओं द्वारा शिव स्तुति

दक्ष यज्ञ पूर्ति

दक्ष यज्ञ विध्वंश

सती देहत्याग

पृथ्वी दोहन

पृथ्वी स्तुति

वंदीजन स्तुति

पृथु आविर्भाव

वेण

6.ध्रुव वंश

 श्रीसूतजी कहते हैं—शौनकजी! श्रीमैत्रेय मुनिके मुखसे ध्रुवजीके विष्णुपदपर आरूढ़ होनेका वृत्तान्त सुनकर विदुरजीके हृदयमें भगवान् विष्णुकी भक्तिका उद्रेक हो आया और उन्होंने फिर मैत्रेयजीसे प्रश्न करना आरम्भ किया ⁠।⁠।⁠१⁠।⁠। विदुरजीने पूछा—भगवत्परायण मुने! ये प्रचेता कौन थे? किसके पुत्र थे? किसके वंशमें प्रसिद्ध थे और इन्होंने कहाँ यज्ञ किया था? ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠। भगवान्‌के दर्शनसे कृतार्थ नारदजी परम भागवत हैं—ऐसा मैं मानता हूँ⁠। उन्होंने पांचरात्रका निर्माण करके श्रीहरिकी पूजापद्धतिरूप क्रियायोगका उपदेश किया है ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। जिस समय प्रचेतागण स्वधर्मका आचरण करते हुए भगवान् यज्ञेश्वरकी आराधना कर रहे थे, उसी समय भक्तप्रवर नारदजीने ध्रुवका गुणगान किया था ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। ब्रह्मन्! उस स्थानपर उन्होंने भगवान्‌की जिन-जिन लीला-कथाओंका वर्णन किया था, वे सब पूर्णरूपसे मुझे सुनाइये; मुझे उनके सुननेकी बड़ी इच्छा है ⁠।⁠।⁠५⁠।⁠।श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी! महाराज ध्रुवके वन चले जानेपर उनके पुत्र उत्कलने अपने पिताके सार्वभौम वैभव और राज्यसिंहासनको अस्वीकार कर दिया ⁠।⁠।⁠६⁠।⁠। वह जन्मसे ही शान्तचित्त, आसक्तिशून्य और समदर्शी

5.विष्णु लोक

 श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! ध्रुवका क्रोध शान्त हो गया है और वे यक्षोंके वधसे निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर भगवान् कुबेर वहाँ आये⁠। उस समय यक्ष, चारण और किन्नरलोग उनकी स्तुति कर रहे थे⁠। उन्हें देखते ही ध्रुवजी हाथ जोड़कर खड़े हो गये⁠। तब कुबेरने कहा ⁠।⁠।⁠१⁠।⁠। श्रीकुबेरजी बोले—शुद्धहृदय क्षत्रियकुमार! तुमने अपने दादाके उपदेशसे ऐसा दुस्त्यज वैर त्याग दिया; इससे मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠।वास्तवमें न तुमने यक्षोंको मारा है और न यक्षोंने तुम्हारे भाईको⁠। समस्त जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशका कारण तो एकमात्र काल ही है ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। यह मैं-तू आदि मिथ्याबुद्धि तो जीवको अज्ञानवश स्वप्नके समान शरीरादिको ही आत्मा माननेसे उत्पन्न होती है⁠। इसीसे मनुष्यको बन्धन एवं दुःखादि विपरीत अवस्थाओंकी प्राप्ति होती है ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। ध्रुव! अब तुम जाओ, भगवान् तुम्हारा मंगल करें⁠। तुम संसारपाशसे मुक्त होनेके लिये सब जीवोंमें समदृष्टि रखकर सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीहरिका भजन करो⁠। वे संसारपाशका छेदन करनेवाले हैं तथा संसारकी उत्पत्ति आदिके लिये अपनी त्रिगुणात्मिका मायाशक्तिसे युक्त होकर भी वास्तवमें उससे रहित ह

3.युद्ध

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! ध्रुवने प्रजापति शिशुमारकी पुत्री भ्रमिके साथ विवाह किया, उससे उनके कल्प और वत्सर नामके दो पुत्र हुए ⁠।⁠।⁠१⁠।⁠।महाबली ध्रुवकी दूसरी स्त्री वायुपुत्री इला थी⁠। उससे उनके उत्कल नामके एक पुत्र और एक कन्यारत्नका जन्म हुआ ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠। उत्तमका अभी विवाह नहीं हुआ था कि एक दिन शिकार खेलते समय उसे हिमालय पर्वतपर एक बलवान् यक्षने मार डाला⁠। उसके साथ उसकी माता भी परलोक सिधार गयी ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। ध्रुवने जब भाईके मारे जानेका समाचार सुना तो वे क्रोध, शोक और उद्वेगसे भरकर एक विजयप्रद रथपर सवार हो यक्षोंके देशमें जा पहुँचे ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। उन्होंने उत्तर दिशामें जाकर हिमालयकी घाटीमें यक्षोंसे भरी हुई अलकापुरी देखी, उसमें अनेकों भूत-प्रेत-पिशाचादि रुद्रानुचर रहते थे ⁠।⁠।⁠५⁠।⁠। विदुरजी! वहाँ पहुँचकर महाबाहु ध्रुवने अपना शंख बजाया तथा सम्पूर्ण आकाश और दिशाओंको गुँजादिया⁠। उस शंखध्वनिसे यक्ष-पत्नियाँ बहुत ही डर गयीं, उनकी आँखें भयसे कातर हो उठीं ⁠।⁠।⁠६⁠।⁠। वीरवर विदुरजी! महाबलवान् यक्षवीरोंको वह शंखनाद सहन न हुआ⁠। इसलिये वे तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र लेकर नगरके बाहर निकल आये और ध्रुवपर टूट

2.वरदान, घर लौटना

 श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! भगवान्‌के इस प्रकार आश्वासन देनेसे देवताओंका भय जाता रहा और वे उन्हें प्रणाम करके स्वर्गलोकको चले गये⁠। तदनन्तर विराट्स्वरूप भगवान् गरुड़पर चढ़कर अपने भक्तको देखनेके लिये मधुवनमें आये ⁠।⁠।⁠१⁠।⁠। उस समय ध्रुवजी तीव्र योगाभ्याससे एकाग्र हुई बुद्धिके द्वारा भगवान्‌की बिजलीके समान देदीप्यमान जिस मूर्तिका अपने हृदयकमलमें ध्यान कर रहे थे, वह सहसा विलीन हो गयी⁠। इससे घबराकर उन्होंने ज्यों ही नेत्र खोले कि भगवान्‌के उसी रूपको बाहर अपने सामने खड़ा देखा ⁠।⁠।⁠२⁠।⁠। प्रभुका दर्शन पाकर बालक ध्रुवको बड़ा कुतूहल हुआ, वे प्रेममें अधीर हो गये⁠। उन्होंने पृथ्वीपर दण्डके समान लोटकर उन्हें प्रणाम किया⁠। फिर वे इस प्रकार प्रेमभरी दृष्टिसे उनकी ओर देखने लगे मानो नेत्रोंसे उन्हें पी जायँगे, मुखसे चूम लेंगे और भुजाओंमें कस लेंगे ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। वे हाथ जोड़े प्रभुके सामने खड़े थे और उनकी स्तुति करना चाहते थे, परन्तु किस प्रकार करें यह नहीं जानते थे⁠। सर्वान्तर्यामी हरि उनके मनकी बात जान गये; उन्होंने कृपापूर्वक अपने वेदमय शंखको उनके गालसेछुआ दिया ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। ध्रुवजी भविष्यमें अविचल पद प्र