अधर्मका वंश

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—शत्रुसूदन विदुरजी! सनकादि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि और यति—ब्रह्माजीके इन नैष्ठिक ब्रह्मचारी पुत्रोंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश नहीं किया (अतः उनके कोई सन्तान नहीं हुई)⁠। अधर्म भी ब्रह्माजीका ही पुत्र था, उसकी पत्नीका नाम था मृषा⁠। उसके दम्भ नामक पुत्र और माया नामकी कन्या हुई⁠। उन दोनोंको निर्ऋति ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी ⁠।⁠।⁠१-२⁠।⁠। दम्भ और मायासे लोभ और निकृति (शठता)-का जन्म हुआ, उनसे क्रोध और हिंसा तथा उनसे कलि (कलह) और उसकी बहिन दुरुक्ति (गाली) उत्पन्न हुए ⁠।⁠।⁠३⁠।⁠। साधुशिरोमणे! फिर दुरुक्तिसे कलिने भय और मृत्युको उत्पन्न किया तथा उन दोनोंके संयोगसे यातना और निरय (नरक)-का जोड़ा उत्पन्न हुआ ⁠।⁠।⁠४⁠।⁠। निष्पाप विदुरजी! इस प्रकार मैंने संक्षेपसे तुम्हें प्रलयका कारणरूप यह अधर्मका वंश सुनाया⁠। यह अधर्मका त्याग कराकर पुण्य-सम्पादनमें हेतु बनता है; अतएव इसका वर्णन तीन बार सुनकर मनुष्य अपने मनकी मलिनता दूर कर देता है ⁠।⁠।⁠५⁠।⁠। 

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